विद्यार्थी जीवन पर निबंध

विद्यार्थी जीवन पर निबंध – Essay on Student Life in Hindi

विद्यार्थी और शिक्षा का बड़ा ही गहरा संबंध है। शिक्षा मनुष्य के लिए खान-पान से भी अधिक आवश्यक है। शिक्षा प्रत्येक समाज और राष्ट्र के लिए उन्नति की कुंजी है। अज्ञानता मनुष्य के लिए अभिशाप है। शिक्षा के द्वारा ही हम सत्य और असत्य को परख पाते हैं। शिक्षा जीवन-विकास की सीढ़ी है।

मनुष्य के जीवन का वह समय, जो शिक्षा प्राप्त करने में व्यतीत होता है, ‘विद्यार्थी-जीवन’ कहलाता है। यों तो मनुष्य जीवन के अंतिम क्षणों तक कुछ-न-कुछ शिक्षा ग्रहण करता ही रहता है, परंतु उसके जीवन में नियमित शिक्षा की ही अवधि विद्यार्थी जीवन है। प्राचीन ऋषि-मुनियों की शिक्षा-पद्धति में विद्यार्थी जीवन की एक निश्‍चित अवधि थी। मनुष्य का संपूर्ण जीवन सौ वर्षों का माना जाता था। पूरे जीवन को कार्य की दृष्टि से चार भागों में बाँटा गया था – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। यह पहला ब्रह्मचर्य-काल ही विद्यार्थी जीवन माना जाता था।

‘अल्पकाल’ ही जीवन को सुखमय बनाता है और अल्पकाल ही जीवन को दु:खमय बनाता है। यह कथन ही विद्यार्थी के जीवन की कसौटी है। मनुष्य का यह अल्पकाल ही उसके बनने अथवा बिगड़ने के लिए जिम्मेदार रहता है। विद्यार्थी का मतलब है – विद्या अर्थी = विद्या चाहनेवाला। यह विद्यार्थी जीवन एक तपस्वी-साधक का जीवन होता है। विद्यार्थियों के लिए अध्ययन ही तपस्या है। तपस्वी को जो आनंद ईश्‍वर के दर्शन से होता है, वही विद्यार्थी को परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर मिलता है। विद्यार्थियों में निम्‍न पाँच गुणों का होना आवश्यक है—

१. काक चेष्टा – जिस प्रकार कौआ अपने भोजन के लिए हर प्रकार का यत्न करता है, ठीक उसी प्रकार विद्यार्थी को अध्ययन में सफलता के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए।

२. बकोध्यानं – जिस प्रकार बगुला अपने शिकार पर एकाग्रचित्त रहता है, उसी प्रकार विद्यार्थी को पढ़ने में दत्तचित्त रहना चाहिए।

३. श्‍वाननिद्रा – विद्यार्थी को श्‍वान (कुत्ता) की भाँति बहुत कम सोना चाहिए। उसे अति गहरी नींद में नहीं सोना चाहिए।

४. अल्पाहारी – विद्यार्थी को भोजन कम मात्रा में करना चाहिए। अधिक भोजन करने से आलस्य आता है।

५. गृह-त्यागी – घर से दूर रहने पर पढ़ने में मन अधिक रमता है। इन सब गुणोंवाला ही ‘सच्चा विद्यार्थी’ होता है।

प्राचीन काल में विद्यार्थी सरस्वती का आराधक होता था। प्रकृति माँ की पवित्र गोद में रहता था। गुरु की सेवा और अध्ययन उसके मुख्य कार्य थे। आरुणि और उद्दालक इसी शिष्य-परंपरा में आते हैं। आधुनिक विद्यार्थी जीवन में ये गुण देखने में नहीं आते। इसका कारण है युग-परिवर्तन। आज का विद्यार्थी विद्या प्र्राप्त करने किसी नगर या कस्बे में जाता है। विज्ञान के चमत्कारों से पूर्ण नागरिक जीवन उसे अपनी ओर खींचता है, जिससे वह विद्या-प्राप्ति की ओर अधिक ध्यान नहीं दे पाता।

विद्यार्थी ही किसी राष्ट्र के निर्माता और भविष्य होते हैं। इनके निर्माण का गुरुतर उत्तरदायित्व अध्यापकों और विद्यालय के वातावरण पर है।

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